खूंटियाँ

कुछ दिनों पहले की बात है, एक व्यक्ति राजस्थान गया था। उसे रास्ते में एक ढाबा मिला। उसने भोजन किया और रात में वहीँ रूक गया। थोड़ी देर बाद उसी ढाबे में व्यापारियों का एक दल भी आकर रुका, जिनके पास कई सारे ऊँट  थे। उन व्यापारियों के साथ एक नौकर भी था जो सारे ऊँटों की देख-रेख और उनके खाने – पीने का ध्यान रखता था। सभी व्यापारी ऊँटों से अपना सामान लेकर ढाबे में बैठ गये। अब नौकर उन सारे ऊँटों को ढाबे के पीछे ले गया। वह व्यक्ति भी घूमते हुए उनके पीछे-पीछे चला गया। उसने देखा की नौकर ने जमीन में खूँटियाँ गाड़कर सभी ऊँटों को बांध दिया। लेकिन एक ऊंट के लिए रस्सी कम पड़ गयी। नौकर ने अपने मालिक से बताया।

उसके मालिक ने नौकर से कहा- “तुम खूंटी गाड़ने जैसी आवाज करो और ऊँट को रस्सी में बाँधने जैसा अहसास करवाओ।” नौकर ने वैसा ही किया। थोड़ी देर बाद उस व्यक्ति ने देखा कि कोई भी ऊँट अपनी जगह से कही नहीं गया और थोड़ी ही देर में सारे ऊँट अपनी-अपनी जगह पर बैठकर सो गये। जैसे ही सुबह हुई सभी ऊँटों की रस्सियाँ खोलकर खूँटियाँ उखाड़ी गईं। सभी ऊँट उठकर चलने लगे लेकिन वह ऊँट अभी भी बैठा रहा जो बिना खूंटी और रस्सी के था।

अब उस व्यक्ति से रहा नहीं गया। वह उस व्यापारी के पास गया और पूछा – “आपने सारे ऊँटों के गले में रस्सी बांधकर खूंटी से बाँधा था, लेकिन जिस ऊँट को आपने कहीं नहीं बांधा वह अभी भी अपनी जगह से नहीं हिल रहा है।” उस व्यापारी ने उसे समझाया कि तुम्हारी नजर में वहां रस्सी और खूंटी का बंधन नहीं है, लेकिन ऊँट के दिमाग में अभी भी वह बंधन है। उसने नौकर को आदेश दिया कि जैसे रात में बांधने की व्यवस्था की थी, वैसे ही अभी खूंटी उखाड़ने और बंधी रस्सी खोलने का अहसास करवाओ।

नौकर ने काल्पनिक खूंटी उखाड़ दी जो थी ही नहीं, रस्सी खोलने का भी नाटक किया जिसका कोई अस्तित्व नहीं था। रस्सी खोलने और खूंटी उखाड़ने को देखते ही ऊंट उठकर चल पड़ा।

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