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उज्जैनी नमकीन की खासियत

उज्जैन की जलवायु व पानी महत्वपूर्ण घटक है। हमारे यहां जो स्वाद बनता है वह हर शहर में नहीं। हल्की बारीक साइज की उज्जैनी सेंव इतनी प्रसिद्ध है की अन्य शहरों में भी उज्जैनी सेंव के नाम से इस आकार की सेंव बेची जाती है। सेंव को लजीज व खस्तापन बनाने में हमारे कारीगरों को महारथ हासिल है। हर व्यापारी का अपनी स्पेशल क्वालिटी है। अधिकांश प्रतिष्ठित करोबारी तेल, बेसन व मसाला उत्कृष्ट क्वालिटी का उपयोग करते हैं। इसी से उज्जैन की सेंव हर कहीं पहचानी जाती है।

लजीज स्वाद, खस्तापन व लौंग के टेस्ट से हर किसी को ललचाने वाली उज्जैन की सेंव को वैश्विक पहचान दिलाने की कवायद शुरू हुई है। रतलाम नमकीन व्यापारी एसोसिएशन द्वारा रतलामी सेंव का जियोग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) रजिस्टे्रशन होने से यह एक वैश्विक ब्रांड बन गई। इसी तर्ज पर अब कुछ ऐसे ही प्रयास उज्जैन के नमकीन व्यापारियों ने शुरू किए हैं। जीआई रजिस्टर्ड होने के बाद केवल उज्जैन में ही निर्मित सेंव को ही उज्जैनी या उज्जैन की प्रसिद्ध सेंव के नाम से बेचा जा सकेगा।


गरमा गरम पोहा जलेबी : पोहा जलेबी हमारे उज्जैन का पसंदीदा नाश्ता है । यह कम्युनिटी उन सभी भाई बंधुओं के लिए है जो किसी भी समय पोहा और जलेबी खाने को तैयार रहते है ! चाहे वो सुबह का नाश्ता हो या रात को २ बजे भूक मिटाने का जरिया !! 5 रूपैये प्लेट पोहा और 5 रुपैय्ये कि जलेबी। 10 रुपये मे मस्त खाने का जुगाड़। पोहे में निचोडा हो मस्त निम्बू और ऊपर से डाला हो बेहतरीन धनिया तो बात ही क्या है…!!! तो अगर आप अपने पुराने टाइम को याद करते है और उज्जैन के पोहे जलेबी को मिस करते है….तो आइये और अपने पोहे जलेबी के अनुभव शेयर कीजिये…!!!

उज्जैन की सुबह होती है नाश्ते हेतु पोहे-जलेबी से। कई लोगों को, जिन्होंने यह “कॉम्बिनेशन” नहीं खाया है वह आश्चर्य करेंगे, लेकिन भाप पर पके हुए (जी हाँ, भट्टी पर तपेले में गर्म पानी रखकर उसपर पोहे की कढाई रखी जाती है, और बिना तेल के सीधे हल्दी-मसाला-खड़े धने-अनारदाना- सेंव-प्याज मिलाकर दूर से ही लोगों की लार टपकाने हेतु सजाकर रख दिया जाता है) गरमागरम पोहे का स्वाद वही जान सकता है, जिसने खाया हो। साथ में होती हैं गरम और कड़क जलेबियाँ। एक कौर पोहे का जिसमें एक छोटा सा टुकड़ा जलेबी का, म्म्म्म्म्म मजा आ जाता है, कई बार गप्पें मारते हुए, या “जलेबी बच गई है इसलिये” एक की जगह पोहे की दो प्लेट हो जाती हैं। इतना भारी नाश्ता करने के बाद भोजन दो-तीन बजे के बाद ही होता है।


उज्जैनी टोस्ट : शहर में कई बेकरी प्लांट हैं, जहां के स्वादिष्ट उत्पाद आज देशभर में अपनी छाप छोड़ रहे हैं। कभी हाथ के कारीगरों के भरोसे संचालित होने वाली बेकरी आज आधुनिक हो गई है। इनकी उत्पादन क्षमता भी कई गुना बढ़ी है। इसके चलते अब टोस्ट भी कई वैरायटियों में बनने लगे हैं।

इसमें अखरोट, काजू, पिस्ता, कॉमन ड्रायफ्रूट आदि शामिल हैं। 1965 से टोस्ट का कारोबार कर रहे तोपखाना स्थित बेमिसाल बेकरी संचालक मुजफ्फर हुसैन का कहना है कि 5 रुपए किलो से व्यापार शुरू किया था, जो आज 60 से 110 रुपए तक पहुंच गया है। पहले शहर का टोस्ट उज्जैन, इंदौर व भोपाल तक सीमित था, लेकिन आज यहां का टोस्ट देशभर में सप्लाय हो रहा है। प्रतिदिन कई क्विंटल माल शहर से बाहर जाता है। भविष्य में भी टोस्ट कारोबार में काफी संभावना है।

जल्द ही बाजार में टोस्ट का पाउच भी उपलब्ध होगा। इस नए ट्रेंड के टोस्ट की कीमत 5 रुपए होगी। बाजार के अनुरूप परिवर्तन से ही व्यापार की सफलता है। पहले कारखानों में हाथ के कारीगर काम करते थे, आज हर काम ऑटोमैटिक मशीन से हो रहा है। मैदा गूंथना, मिक्सर, टोस्ट कटर, हीटिंग सब काम के लिए मशीन हैं। इसके बाद भी प्लांट में 20-25 कर्मचारी काम करते हैं। इससे उत्पादन भी काफी बढ़ा है और बेकरी कारोबार भी उद्योग का रूप ले रहा है।


फेमस कुल्फी : संत ऋतु के आगमन के साथ ही मालवा में खाने-पीने का अंदाज भी बदलने लगता है। हल्की गर्मी और ठंडक के बीच मन को शीतलता देने वाली डिश लोगों को भाने लगी है। ऐसे ही शहर में बहुत चाव से खाने वाली कुल्फी का सीजन भी शुरू हो गया है। पहले सिर्फ गर्मी में कुल्फी की दुकानें दिखती थी, लेकिन स्वाद के शौक और बदलते वक्त के साथ अब 12 महीने ये ठिये आबाद रहते हैं। पत्ते के दोने में केसर, पिस्ता और काजू युक्त कुल्फी का ख्याल ही लोगों को उत्साह से भर देता है। कुल्फी का स्वाद भी ऐसा है, जो मिठाई की कमी पूरी कर देता है।

शहर को केसर-पिस्ता की रसभरी और लच्छेदार कुल्फी का जायका चखा रहे फेमस कुल्फी एंड लस्सी सेंटर के संचालक निखिलेश नारंग। शहर में छत्रीचौक और फ्रीगंज में दुकान संचालित करने वाले निखिलेश बताते हैं कि उनके दादा रामलाल नारंग ने 60 साल पहले ठेला लगाकर कुल्फी बेचने की शुरुआत की थी। लोगों को यह स्वाद बहुत भाया। दूर-दूर से लोग फेमस की कुल्फी खाने आते हैं और कहते कि ऐसा स्वाद कहीं नहीं मिलता। निखिलेश बताते हैं कि पिता अनिल नारंग और भाई अखिलेश नारंग के साथ मिलकर वे शहर को कुल्फी खिला रहे हैं।


मनभावन आलूबड़ा : मिठाई साथ ही शहर की एक और चीज दूर-दूर तक प्रसिद्ध है, लेकिन यह मिठाई के उलट काफी तीखी है। इसे खाना हर किसी के बस की बात भी नहीं है। हम बात कर रहे हैं नरेंद्र टॉकीज चौराहे पर मिलने वाले आलूबड़े की। जी हां…ये आलूबड़े उज्जैन के इस टाकीज की पहचान बन चुके हैं। इसके तीखेपन के कारण ही लोग इसे बम आलूबड़ा भी कहते हैं, कुछ लोग कहते हैं कि आलूबड़ा खाते ही दिल और दिमाग झन्ना जाता है, इसलिए इसे झन्नाट आलूबड़ा भी कहते हैं। फेमस आलूबड़ा संचालक दीपक पंजवानी यह अनोखा स्वाद शहरवासियों को चखा रहे हैं। दीपक बताते हैं उनके दादा दौलतराम ने करीब 50 साल पहले यह दुकान शुरू की। धीरे-धीरे तीखे आलूबड़े का स्वाद लोगों को भाने लगा। तेज मसालों को समायोजित करने के लिए इसे पाव के साथ खाते हैं। कई बार पर्यटक आते हैं तो आलूबड़ा बनाने की विधि भी पूछते हैं। जो कम मिर्च खाते हैं, वे इस आलूबड़े को नहीं खा सकते।

सामान्य आलूबड़े की तरह ही इसका मसाला तैयार होता है। उबले आलू मैश करने के बाद बहुत सारे खड़े मसालों को कूटकर बघार लगाया जाता है। सर्दी में मटर तो गर्मी में कैरी डाली जाती है। मसाला पक जाए तो ऊपर से बारीक कटे प्याज डाले जाते हैं। बेसन के घोल में गोले बनाकर गर्म तेल में तलते हैं। हल्का सुनहरा होने के बाद निकालते हैं। पांच मिनट बाद दोबारा तेज गर्म तेल में आलूबड़े डालकर कुरकुरे होने तक तलते हैं। फिर कढ़ाही से निकालकर गरमा गरम आलूबड़े पाव के साथ खाए जा सकते हैं।


 दाल-बाफ़ले / बाटी : दाल-बाफ़ले / बाटी उज्जैन ही नहीं, बल्कि पूरे मालवा का शाही भोजन माना जाता है, जब कोई विशेष आयोजन होता है तब मेजबान दाल-बाफ़ले / बाटी का कार्यक्रम रखते हैं। संक्षेप में, “बाफ़ला” कहते हैं आटे के एक बड़े, घी में पके हुए गोले को, जिसे दाल में चूरा-चूरा करके खाया जाता है।

बाफ़ला बनाने के लिये रोटी के आटे से थोड़ा मोटा (दरदरा) आटा गूँथा जाता है, फ़िर उसमें नमक, हल्दी आदि मिलाकर उसके गोले बना लिये जाते हैं (आकार में टेनिस गेंद से थोड़े बड़े)। इन आटे के गोलों को कंडे के ढेर में दबा कर उन कंडों को सुलगा दिया जाता है, कंडों की धीमी-धीमी आँच से ये गोले भीतर तक पूरी तरह पक जाते हैं। फ़िर इन्हें बाहर निकालकर उस पर लगी राख आदि को कपड़े से साफ़ करके, शुद्ध घी से भरी हुई एक बड़ी परात में उन्हें हल्का सा “चीरा” लगाकर डुबाया जाता है, इससे गरम-गरम बाफ़ले अन्दर तक घी से पूरी तरह नहा जाते हैं। दाल तो जैसी आपकी मर्जी हो बना दी जाती है (आमतौर पर खट्टी-मीठी), लेकिन इन दोनो के साथ रवे-मावे के लड्डू भी होते हैं, जिसमें सूखा मेवा और मिश्री डाली जाती है, हरी मिर्ची की तीखी चटनी और गोभी या आलू की सब्जी, अब हुई पूरी “डिश” तैयार। पूरी थाली (एक बाफ़ला, दाल, एक लड्डू, चटनी और थोडी सी सब्जी) परोसने के बाद यदि कोई एक और पूरा बाफ़ला लेता है, तो मानना पड़ेगा कि उसकी खुराक बेहतरीन है। लेकिन इसकी नौबत कम ही आती है।


 ठंड का दुश्मन ..गराडू : अब ये ठंड और गराडू में दुश्मनी कब शुरु हुई  ये तो नहीं पता,  पर ठंड में गराडू और जलेबी खाने का मज़ा ही कुछ और है ! तो आज हम, आप चटोरों को  ले कर चलते है एक नए चाट-मंदिर पर जहाँ आप पूरी सर्दियाँ , माथा टेकने जा सकते है ।

कंठाल चौराहे से जो रोड सीधी गोपाल मंदिर को जाती है, बस वही सड़क पकड़ कर निकल पड़ें, जैसे ही सराफा शुरू होता है ‘भगत जी’ की मिठाई की दुकान के पास मिलन होजियरी के ठीक सामने आप इन भेरू जी के ओटला के दर्शन कर सकतें है । ‘बड़नगर वालों’ के नाम से प्रसिद्ध, ये गराडू और जलेबी एक्सपर्ट अपनी छोटी सी दुकान जो माल परोसतें हैं, आप अपनी उँगलियाँ चाटने पर मजबूर हो जायंगे ।

भीड़ भरी सड़क के बीचो बीच बने बेतरबीब पार्किंग में गाड़ी (चौपहिया वाहन ले जाने की गुस्ताखी ना करें) खडी कर उँगलियाँ चाटते हुए पुरानी अख़बारों पर परोसे गराडू और जलेबियाँ चटकाने का आनंद लेना ना भूलें इस रविवार । तब तक चित्रों में स्वाद का आनंद लेवें !