दो दिवसीय किसान महासम्मेलन का समापन, किसानों को प्रशिक्षण दिया गया

शहर में आयोजित दो दिवसीय किसान महासम्मेलन का समापन रविवार को नानाखेड़ा स्टेडियम में किया गया। इस दौरान उज्जैन जिले की अलग-अलग तहसीलों से आये किसानों को कृषि विभाग की आत्मा संस्था द्वारा प्रशिक्षण दिया गया। इसमें कृषि विज्ञान केन्द्र के वरिष्ठ वैज्ञानिकों द्वारा किसानों को खेती को लाभ का धंधा बनाने, कृषि से हुई आय को दोगुना करने और खेती में लागत कम करने सम्बन्धी विषयों पर व्याख्यान दिया गया। इसके अलावा जैविक खेती व मिश्रित खेती को बढ़ावा देने पर भी जोर दिया गया। प्रगतिशील व कृषि क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वाले किसानों ने मंच से अपने अनुभव दूसरे किसानों से बांटे। समारोह स्थल पर कृषि अभियांत्रिकी, उद्यानिकी व कृषि विज्ञान केन्द्र द्वारा लगाये गये काउंटर व स्टाल पर जाकर किसान लाभान्वित हुए।

प्रशिक्षण के दौरान कृषि वैज्ञानिकों द्वारा स्प्रिंकलर एवं ड्रिप विधि से फसलों की सिंचाई के बारे में किसानों को अत्यन्त आवश्यक व रोचक जानकारी दी गई। उल्लेखनीय है कि फसलों की सिंचाई में स्प्रिंकलर का उपयोग कर 50 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है। इससे फसल को समान व एक ही मात्रा में पानी देने से सिंचाई सुचारू रूप से होती है। असमतल जमीन में भी सफलतापूर्वक फसलों की सिंचाई की जा सकती है। कम पानी में अधिक क्षेत्रफल में फसलों की सिंचाई स्प्रिंकलर के द्वारा आसानी से की जा सकती है। इस पद्धति से फसलों के उत्पादन में प्रति हेक्टेयर वृद्धि होती है तथा साथ ही मजदूरी की भी बचत होती है। खेत में नालियां/बरह आदि बनाने की आवश्यकता नहीं होती। इस पद्धति से पानी एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से ले जाया जा सकता है। सिंचाई के साथ घुलनशील खाद एवं कीटनाशक दवाईयों का छिड़काव भी किया जा सकता है।

ड्रिप विधि से भी फसलों की सिंचाई में 80 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है। इस‍ विधि से फसलों व पौधों की जड़ों में बूंद-बूंद कर पानी दिया जाता है। एक समय में ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र में ड्रिप द्वारा सिंचाई की जा सकती है। इस विधि से फसलों में घुलनशील उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं का उपयोग सीधा फसलों की जड़ों में किया जा सकता है। इसके कारण 30 प्रतिशत तक खाद की बचत की जा सकती है। ड्रिप विधि से पौधों की जड़ों के अलावा बाकी जगह सूखी रहती है। इस कारण खरपतवार भी बहुत कम होते हैं।

रेज्डबेड पद्धति से बुवाई के लाभ

व्याख्यान के दौरान वैज्ञानिकों द्वारा किसानों को रेज्डबेड पद्धति से बुवाई के लाभ के बारे में बताया गया। इससे सिंचाई के पानी का व्यवस्थापन अच्छी तरह से होता है। समतल क्यारी विधि की अपेक्षा 25 से 30 प्रतिशत पानी की बचत होती है। समतल क्यारी विधि की अपेक्षा 20 प्रतिशत अधिक उपज प्राप्त होती है। वर्षाजल के अच्छे निकास के कारण गीली भूमि में भी अच्छा उत्पादन मिलता है। बीज दर कम लगती है, जिसमें पौधों की संख्या नियंत्रित की जा सकती है। मेढ़ से मेढ़ की दूरी पर्याप्त होने से पौधों को सूर्य की किरणें अधिक से अधिक मिलती है, जिससे पौधों की शक्ति बढ़ती है तथा आसपास की मिट्टी भी सूखी रहती है, जिससे पौधों के झुकने की समस्या नहीं रहती है। समतल बुवाई विधि की अपेक्षा इसमें अंकुरण क्षमता अधिक होती है। क्योंकि समतल विधि में बीज को जमीन के अन्दर डाला जाता है, जिससे पौधों को जमीन से बाहर निकलने में अधिक ऊर्जा की जरूरत होती है। इसके अलावा वर्षा की कमी की स्थिति में समतल विधि की अपेक्षा इस विधि में 4.5 प्रतिशत अधिक नमी रहती है।

मिट्टी परीक्षण कैसे करें

प्रशिक्षण के दौरान किसानों को मिट्टी का नमूना लेने की विधि के बारे में विभाग के अधिकारियों द्वारा विस्तार से बताया गया। इस विधि के तहत खेत को मिट्टी के रंग, प्रकार एवं प्राकृतिक ढलान तथा गहराई के आधार पर विभाजित करना चाहिये। पिछली फसल की कटाई के ठीक बाद या अगली फसल के पहले खेती की मिट्टी का नमूना लेना चाहिये। जिस खेत का नमूना लेना हो, उसके 8 से 10 स्थानों पर निशान लगा लेने चाहिये। प्रत्येक निशान स्थान से घास-फूंस, कंकड़-पत्थर को साफ करवा लेना चाहिये। इसके बाद प्रत्येक निशान से खुरपी या फावड़े से अंग्रेजी अक्षर v आकार का 15 सेमी गहरा गड्ढा कर लेना चाहिये। गड्ढे से ऊपर की फालतू मिट्टी निकालकर खुरपी की सहायता से मिट्टी की दीवार से लगभग एक अंगुली मोटी मिट्टी की परत निकाल लेना चाहिये। इस मिट्टी को साफ-सुथरे तसले, बोरी या अखबार पर सभी 8 से 10 स्थानों की मिट्टी को रखकर अच्छी तरह से मिलाना चाहिये। इसके बाद एकत्रित मिट्टी के चार भाग करने चाहिये। जो कम से कम 500 ग्राम के हों। इन चारों भाग में से तीन भाग मिट्टी खेत में छोड़ देना चाहिये तथा एक भाग पॉलीथीन में रखकर मिट्टी की पहचान लिखकर अपने पास रख लेना चाहिये। अपनी मिट्टी के नमूने को सीधे जांच के लिये मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला में लाना चाहिये। उक्त परीक्षण अनुसूचित जाति व जनजाति के किसानों के लिये मात्र 10 रूपये में और अन्य कृषकों के लिये मात्र 15 रूपये में किया जाता है।

जैविक खाद का प्रयोग करें

जैविक खेती के बारे में व्याख्यान के दौरान किसानों को बताया गया कि गांव में उपलब्ध स्थानीय कूड़ा तथा वनस्पति कवस, फसल अवशेष आदि का उपयोग जैविक खाद बनाने के लिये किया जा सकता है। खेत में ही नाडेप, वर्मी कम्पोस्ट, भू-नाडेप आदि के माध्यम से सरल, सस्ती तथा कम समय में उन्नत जैविक खाद तैयार की जा सकती है। गोबर का उपयोग खाद बनाने में किया जा सकता है। इसके अलावा गोमूत्र का उपयोग जैविक कीटनाशक और जैविक पौध-संवर्धक के रूप में अगर किसान करें तो काफी फायदेमन्द होता है।

किसानों को बताया गया कि खेतों की नरवाई जलाने में मृदा उर्वरता को क्षति पहुंचती है, जिसका प्रभाव भविष्य में फसल उत्पादकता के विपरीत पड़ता है। हरी खाद जैसे- सनई, ढेंचा, लोबिया व मूंग आदि का उपयोग कर भूमि की संरचना और उर्वरता में सुधार करना चाहिये। फसलों में ट्रायकोडर्मा या गोमूत्र से बीजोपचार के पश्चात पीएसबी, सायजोबियम कल्चर एवं एजेक्टोबैक्टर का टीका बीज पर लगाना चाहिये। कीट नियंत्रण के लिये फैरोमन ट्रेप तथा लाईट ट्रेप का उपयोग किसानों को करना चाहिये। इसके अलावा नीम से बने कीटनाशक, पक्षी ठिकाने व मित्रकीट आदि के द्वारा भी रसायन कीट पर नियंत्रण किया जा सकता है। मल्चिंग के द्वारा खरपतवार नियंत्रण करने से निदा नियंत्रण के लिये प्रयोग किये जाने वाले रसायनों की भारी बचत की जा सकती है। किसानों को सलाह दी गई कि सहभागिता गारंटी प्रणाली (पीजीएस) के तहत सामूहिक जैविक पंजीकरण करायें। जिले में पीजीएस के अन्तर्गत पंजीयन हेतु परियोजना संचालक आत्मा को शासन द्वारा अधिकृत किया गया है।

व्याख्यान के दौरान किसानों को समन्वित कीट प्रबंधन के बारे में भी बताया गया। गौरतलब है कि कीटनाशकों के अत्यधिक व अविवेकपूर्ण उपयोग से पर्यावरण असंतुलन के कारण मानव के साथ ही प्राणीमात्र के लिये नुकसान हो सकता है एवं कीटों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने के कारण कीटनाशक अप्रभावी हो जाते हैं। इसलिये कीटनाशक का विधि अनुसार उपयोग करना चाहिये। किसानों को ग्रीष्मकालीन जुताई करना चाहिये। इस विधि से भूमि में उपलब्ध कीटों के अण्डे सतह पर आ जाते हैं, जो पक्षियों द्वारा भक्षण से नष्ट हो जाते हैं। कीट प्रबंधन के लिये प्राथमिक तौर पर प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करना चाहिये। पक्षियों के बैठने के लिये खेतों में T आकार की खूंटी लगानी चाहिये, जिससे पक्षी इल्लियों का भक्षण कर कीट नियंत्रण में सहायक होते हैं। प्रत्येक कीटनाशक पैक पर चस्पा लिफलेट्स पर कीट नियंत्रण हेतु मात्रा एवं छिड़काव के बीच अन्तराल, उपयोग के लिये निर्देश और प्रयोगकर्ताओं के लिये सावधानियां दर्ज रहती हैं। विशेष तकनीकी मार्गदर्शन के लिये निकटतम कृषि अधिकारी या कृषि वैज्ञानिक कृषि विज्ञान केन्द्र से सम्पर्क किया जा सकता है।

व्याख्यान के दौरान किसानों को पोषक तत्वों की कमी के फसलों पर दिखाई देने वाले लक्षणों के बारे में बताया गया। इसके अलावा कम लागत व उन्नत तकनीक से अधिक मुनाफा कैसे कमाया जाये, इस बारे में भी किसानों को विस्तार से बताया गया। चने की फसल के प्रमुख हानिकारक कीटों एवं समेकित कीट प्रबंधन के बारे में किसानों को व्याख्यान दिया गया। इस दौरान कृषि विज्ञान केन्द्र उज्जैन के वरिष्ठ वैज्ञानिक, परियोजना संचालक आत्मा श्रीमती नीलमसिंह चौहान, उप परियोजना संचालक श्री आरजी अरोलिया, उप संचालक कृषि श्री एसके शर्मा, उप परियोजना संचालक श्री कमलेश राठौर, कार्यक्रम समन्वयक उज्जैन कृषि विज्ञान केन्द्र डॉ.जाटवा, डॉ.कौशिक, डॉ.डीएस तोमर व श्री राजेश गवली मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन व अन्त में आभार उप परियोजना संचालक श्री कमलेश कुमार राठौर ने किया।

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