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विक्रम विश्वविद्यालय:उज्जैन से भी है वाग्देवी प्रतिमा और सरस्वती कंठाभरण का संबंध
विक्रम विश्वविद्यालय में स्थापित है वाग्देवी की प्रति कृति, पुरातत्वविद् पद्मश्री डॉ. वाकणकर का बनाया स्कैच भी उज्जैन के संग्रहालय में संग्रहित
राजा भोज (965 ई.-1055 ई.) भारतीय इतिहास के ऐसे विलक्षण शासक हुए, जो शौर्य एवं पराक्रम के साथ ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, कला तथा धर्म के ज्ञाता थे। राजा भोज ने मां सरस्वती की आराधना, उनके साधकों की साधना, भारतीय जीवन दर्शन एवं संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिए सन् 1034 के आसपास धार और उज्जैन में सरस्वती कंठाभरण नामक विद्याप्रासाद बनवाए थे।
यह आज भी धार में भोजशाला के नाम से प्रसिद्ध है, जो भोज की स्वयं की परिकल्पना एवं वास्तु से निर्मित है। भोज विद्या, वीरता और दान में अद्वितीय थे। उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथों की संख्या 184 से भी अधिक मानी जाती है। ये सभी ग्रंथ ज्ञान-विज्ञान और कलाओं से संबद्ध हैं। उनकी सभा में सैकड़ों विद्वान रहते थे।
उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय में स्थित सुमन मानविकी भवन में अनेक दशकों पूर्व एक सभागार बनवाया गया था, जिसका नाम भोज के निर्माणों से प्रेरणा लेकर सरस्वती कंठाभरण रखा गया था। उज्जैन में सन् 2008 में विक्रम विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र ने महान शासक राजा भोज द्वारा धार में निर्मित भवन सरस्वती कंठाभरण में स्थापित कराई वाग्देवी प्रतिमा से प्रेरणा ली थी।
उस प्रतिमा को सत्रहवें दीक्षांत समारोह में 12 फरवरी 2008 को प्रति उपहार स्वरूप तत्कालीन कुलाधिपति एवं राज्यपाल बलराम जाखड़ द्वारा विक्रम विश्वविद्यालय के कुल को अर्पित करते हुए स्थापित किया था। जिस भवन में यह प्रतिमा स्थापित की गई, उस भवन का नामकरण वाग्देवी भवन किया गया।
वाकणकर ने लंदन में ही तैयार किया था स्कैच
भोजशाला राजा भोज का विश्वविद्यालय था, जो 1005 ईस्वी से राजा भोज के कार्यकाल से ही शुरू हो गया था, जो निरंतर चलता गया। वर्तमान में भोज नाम से प्रदेश में एक विवि भी चल रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि 1005 ईस्वी से भोज विवि की निरंतरता बनी हुई है। भोज के कई महाविद्यालय भी थे।
जो मांडव, धार के अलावा उज्जैन में कांक्षीपुरा (दानीगेट क्षेत्र) में अवस्थित थे। तीनों स्थानों पर आज भी पुरातत्व साक्ष्य मिलते हैं। पुरातत्वविद् पद्मश्री डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने राजा भोज के कार्यकाल का वृत्तांत खोजा। इसके लिए वे 1961 में लंदन गए और वहां ब्रिटिश म्यूजियम में धारानगरी (वर्तमान में धार) की प्रतिमा को रूबरू जाकर देखा और प्रतिमा के सामने मंगलाचरण किया।
संग्रहालय के पंजीयन रजिस्टर में प्रतिमा का नाम अंबिका नाम से रखा था। जिस पर डॉ. वाकणकर ने नाम बदल कर वाग्देवी करने का आग्रह भी किया था। 28 अगस्त 1961 को डॉ. वाकणकर ने म्यूजियम में उसी स्थान पर वाग्देवी प्रतिमा के सामने प्रतिमा का स्कैच तैयार किया था, जो विक्रम कीर्ति मंदिर के पुरातत्व संग्रहालय एवं उत्खनन विभाग में आज भी संग्रहित है।