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जंतर मंतर (वेद शाला )
खगोलशास्त्र के अध्ययन का प्रारंभ कब से हुआ, इसका निर्णय इतिहास के क्षेत्र के बाहर है। जिस प्रकार मानव उत्पत्ति का आरंभ-काल अनिर्णीत है, उसी प्रकार आकाशस्थ ज्योति पुंजों की ओर मानव की जिज्ञासा कब जाग्रत हुई, इसका समय निश्चित करना असंभव है। ऋग्वेद संसार की प्राचीनतम रचना है। इस ग्रंथ में खगोलीय घटनाओं का उल्लेख अनेक ऋचाओं में वर्णित है।
धार्मिक, ऐतिहासिक एंव ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में उज्जैन का प्रमुख स्थान है। इसी नगरी में सूर्य-सिद्धांत की रचना हुई थी। वराहमिहिर जैसे प्रकाण्ड विद्वान इसी नगरी के निवासी थे। भारतीय ज्योतिष के सिद्धांतकाल में उज्जैन की स्थिति ठीक कर्क रेखा एवं मुख्य मध्यान्ह रेखा पर स्थित होने के कारण भारतीय ज्योतिष में कालगणना का मुख्य केन्द्र माना गया है। यहाँ के ज्योतिर्लिंग का नाम महाकालेश्वर है। इससे ऐसा विदित होता है कि महाकलेश्वर की स्थापना होने के पहले से ही उज्जैन की कालज्ञान संबंधी कीर्ति प्रसिद्ध है। यहाँ की रेखा मुख्य मानने का उल्लेख शक पूर्व 300 से 400 तक रखे हुए आद्य सूर्य-सिद्धांत ग्रंथ में आया है। प्राय: उस काल से ही उज्जैन को हिन्दुस्तान का ग्रीनविच होने का सम्मान प्राप्त है।
शिलालेख के अनुसार इस वेधशाला का निर्माण सन 1719 में महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने करवाया था। महाराजा जयसिंह उच्च कोटि के ज्योतिष मर्मज्ञ भी थे। भारतीय ज्योतिष में आ रही त्रुटि दग् प्रत्यय नहीं थी। उसमें सुधार करने हेतु उन्होंने वेधशालाओं का निर्माण करवाया। उनके द्वारा निर्मित वेधशालाएँ उज्जैन के अलावा जयपुर, मथुरा, काशी एवं दिल्ली में विद्यमान हैं।
उज्जैन की वेधशाला लगभग दो सौ वर्ष तक भग्नावस्था में पड़ी रही। सन 1905 में बम्बई में अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मेलन हुआ। उसमें ग्वालियर शासन की ओर से सान्दीपन व्यास, सिद्धांत वागीश, स्व. नारायणजी व्यास एवं गणक चूड़ामणि स्व. गोविंद सदाशिवजी आप्टे भेजे गये थे। इन्होंने प्रचलित पंचांग में संशोधन हेतु यह प्रस्ताव रखा कि एक करणग्रंथ तैयार किया जाये और वह कार्य प्रत्यक्ष वेधोपलब्ध उपकरणों द्वारा किया जाये तथा वेध मध्य रेखा स्थित उज्जैन की वेध-शाला द्वारा लिया जाये। इस प्रस्ताव की स्वीकृति के पश्चात स्वर्गीय महाराजा माधव राव सिंधिया ग्वालियर से वेधशाला के सुधार हेतु आग्रह किया गया। महाराजा ने अनुरोध स्वीकार कर जयपुर के विद्वान स्वर्गीय गोकुलचन्दजी भावन के निरीक्षण में इस वेधशाला का पुनरुद्धार सन 1923 में करवाया तथा वेध आदि कार्यों के लिए आर्थिक व्यवस्था की। 21 मार्च 1930 से श्री गोविन्द सदाशिव आप्टे के निर्देशन में कार्य प्रारंभ हुआ। वेधशाला पर लिये गये वेधों के आधार पर आप्टेजी ने एक करण ग्रंथ ‘ सर्वानन्द लाघव’ संस्था से प्रकाशित किया। इसके द्वारा बनाये गये ग्रह दृग प्रत्यय होते हैं।
सन 1942 से संस्था से अंग्रेजी में एक ‘ एफेमेरीज’ अर्थात् ‘ दृश्यग्रह स्थिति पंचांग ‘ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। सन 1964 से एफेमेरीज में आवश्यक नागरी लिपि का प्रयोग भी किया जा रहा है। इस एफेमेरीज के ग्रह वेध तुल्य होते हैं। इसमें नक्षत्र काल, ग्रहों के भोग, शर एवं क्रांति प्रतिदिन के मान से दिये जाते हैं। सूर्योदय, सूर्यास्त एवं चन्द्रोदय की सारणियाँ भी दी गई हैं। चन्द्र का राशि प्रवेश काल, चन्द्र से ग्रहों का योगकाल, दृष्टि विषय ग्रहों से ग्रहों का योगकाल, ग्रहों की युति एंव प्रतियुति कालीन समय एवं क्रान्त्यन्तर ग्रहण दशमलग्न सारणी, अक्षांश 60 से 340 तक लग्न कोष्टक एवं लघुगुणक कोष्टक भी दिये जाते हैं।
यह वेधशाला, उज्जैन का एक महत्वपूर्ण पर्यटक केन्द्र है, यहाँ खगोलीय ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त किया जा सकता है। खगोल एवं ज्योतिष के छात्र, प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने यहाँ आते रहते हैं।
वेधशाला में निम्नांकित यंत्र बने हैं :–
1. सम्राट यंत्र
2. नाड़ी वलय यंत्र
3. दिगंश यंत्र
4. भित्ति यंत्र
5. शंकु यंत्र
(1) सम्राट यंत्र : इसकी ऊँचाई 22 फुट 4 इंच है तथा जीने की लम्बाई 52 फुट 8 इंच है। यह जीना ठीक दक्षिणोत्तर है। इसके दोनों ओर पूर्व एवं पश्चिम की ओर जो वृत्तपाद हैं, उनकी त्रिज्या 9 फुट डेढ़ इंच है। इसका जीना पृथ्वी के अक्ष के समानान्तर होने के कारण ठीक उत्तर ध्रुव की दिशा होकर अक्षांश 23.11′ के बराबर कोण बनाता है। जीने पर खुदे अंकों से ग्रह, नक्षात्रादिकों की क्रांति का ज्ञान होता है। वृत्त पादों पर घंटे, मिनट एवं 20 सेकेंड के चिन्ह अंकित हैं। जीने की छाया वृत्त पादों पर जहाँ गिरती है वह उस समय का स्थानीय स्पष्ट काल (Local time) दर्शाता है। स्थानीय स्पष्ट काल से भारतीय समय (Indian standard time) जानने के लिए, यंत्र के पूर्व एवं पश्चिम की ओर अंग्रेजी और हिन्दी में संशोधन सारणी लगी हुई है।
(2) नाड़ीवलय यंत्र : यह यंत्र सम्राट यंत्र के समीप ठीक दक्षिण में बना हुआ है। इसके उत्तर एवं दक्षिण दोनों ओर दो वृत्त बने हुए हैं जो विषुवत् वृत्त के समानान्तर हैं। इस यंत्र से ग्रह, नक्षत्रादि दक्षिण या उत्तर गोलार्द्ध में हैं, इसका यथार्थ ज्ञान हो जाता है। सूर्य के सायन मेषारंभ से सायन तुलारंभ तक सूर्य का प्रकाश इस यंत्र के उत्तर भाग के वृत्त पर पड़ता है और सायन तुलारम्भ सायन मेषारम्भ तक के दक्षिण भाग के वृत्त पर सूर्य का प्रकाश पड़ता रहता है। यह काल 23 सितम्बर से 21 मार्च तक होता है। प्रत्येक वृत्त के केन्द्र पर वृत को समकोणिक एक कीला लगा हुआ है। कीले की परछाई से, वृत्त पर खुदे अंकों से स्थानीय समय (L.T. या लोकल टाइम) ज्ञात होता है। स्थानीय समय में संशोधन सारणी से संशोधन करने पर भारतीय समय (I.S.T. या इंण्डियन स्टेन्डर्ड टाइम) ज्ञात होता है। कीले की सीध में ठीक उत्तर दिशा में ध्रुवतारा दिखाई देता है।
(3) दिगंश यंत्र : यह यंत्र दो समकेन्द्रीय दीवारों का बना हुआ है। बाहरी दीवार सुरक्षा के लिए बनाई गई है। भीतरी दीवार पर अंशों के अंक खुदे हुए हैं। भारतीय गणना के अनुसार पूर्व एवं पश्चिम बिन्दु पर 00 अंश और दक्षिणोत्तर बिन्दुओं पर 900 अंश के अंक खुदे हैं। इस यंत्र के मध्य में 4 फुट 4 इंच के स्तम्भ पर एक 4′ लम्बे लोहे के नल पर एक वृत्ताकार प्लेट जिसमें 00 से 3600 के अंक खुदे हुए हैं, लगी हुई है। इस प्लेट के कीले पर एक तुरीय यंत्र ( जो कि 00 से 900 वृत्तपाद के आकार का है) लगाकर ग्रह, नक्षत्रों के उन्नतांश एवं प्लेट से दिगंश ज्ञात किये जा सकते हैं।
(4) याम्योत्तर भित्ति यंत्र : यह एक दीवार के आकार का बना हुआ यंत्र है। यह ठीक दक्षिणोत्तर दिशा में बनाया गया है। इसकी ऊँचाई 24 फुट 3 इंच एवं चौड़ाई 24 फुट 7.5 इंच है। इस दीवार के पूर्वी भाग में ऊपर दोनों कोनों पर दो कीले गड़े हुए हैं, जिनका पारस्परिक अंतर 20 फुट 2 इंच है। कीलों को केन्द्र मानकर दो वृत्त पाद संगमरमर पत्थर के बने हैं एवं वृत्त पादों पर 00 से 900 तक के अंक खुदे हुए हैं। सूर्य जब इस भित्ति पर आता है, तब स्थानीय मध्यान्ह काल होता है। इसी समय यंत्र में लगे हुए कीलों में एक डोरी लगाकर सूर्य के याम्योत्तर लंधन के समय कीले की छाया की सहायता से यह डोरी यंत्रांकित वृत्त पाद में जहाँ स्पर्श करे, वह अंक तात्कालिक सूर्य के याम्योत्तर वृत्तीय नतांश होता है। इन नतांशों से स्थानीय अक्षांश, सूर्य की क्रांति, वर्षमान आदि प्रत्यक्ष रूप से ज्ञात किये जा सकते हैं।
(5) शंकु यन्त्र : यह यंत्र एक गोलाकार चबूतरे का बना हुआ है। इसके केन्द्र में एक 4 फुट ऊँचे लोहे का नल लगा हुआ होता है। इस यंत्र का निर्माण संस्था के प्रथम अधीक्षक श्री गो.स.आप्टे के निर्देशन में सन 1937 में करवाया गया था। इस यंत्र पर 00 से 3600 के अंक खुदे हुए हैं। इस पर उत्तर एवं पूर्व दिशा में दो पट्टियाँ लगी हुई हैं। इस यंत्र पर 7 रेखाएँ खिंची हुई हैं जो क्रमश्: महीने एवं सूर्य की राशि का ज्ञान करवाती हैं। इस यंत्र से दिशा, समय, दिनमान का घटना-बढ़ना एवं संक्रांतियों का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में होता है। 22 दिसम्बर को मकर संक्रांति के दिन सबसे छोटा दिन, 21 मार्च एवं 23 सितम्बर को समान दिन-रात एवं 22 जून को कर्क संक्रांति के समय सबसे बड़ा दिन होता है।
दूरवीक्षण यन्त्र : संस्था में 3 इंच व्यास का एक दूरवीक्षण यंत्र भी है। इससे चन्द्र, मंगल, शुक्र की कलाएँ, गुरु एवं उसके उपग्रह, शनि एवं उसका वलय देखे जा सकते हैं। ग्रहों को देखने के इच्छुक व्यक्तियों का समूह बनाकर संस्था प्रधान से दिनांक निश्चित करवाना आवश्यक है।
प्लेनेटेरियम : संस्था में एक प्लेनेटेरियम भी है जिससे कमरे में आकाश में स्थित नक्षत्रों एवं तारों को देखा जा सकता है।
मौसम विभागीय कार्य : यहाँ पर मौसम विभाग का कार्य भी होता है, जिसमें प्रात: 8.30 एवं सायंकाल 5.30 बजे प्रतिदिन तार द्वारा सूचना भोपाल भेजी जाती है। मौसम विभाग के यंत्रों में वायु दिशा सूचक यंत्र, वायु गति मापक यंत्र, आर्द्रता मापी यंत्र, उच्चतम-न्यूनतम तापमापी और स्व-चालित वर्षा मापक यंत्र इस वेधशाला में स्थापित हैं।