बदल गए गणेशोत्सव के मायने, अब नहीं सजाई जाती झांकियां

अनंत चतुदर्शी की परंपरा को बचाने का प्रयास
उज्जैन। शहर में यूं भले ही गली-मोहल्लों के साथ ही कॉलोनियों व चैराहों पर गणेश मूर्तियों को पांडालों में विराजमान कर गणेशोत्सव मनाया जा रहा हो लेकिन मौजूदा समय में इस उत्सव के मायने ही बदल गए है।
ये गणपति के साधक या तो धार्मिक गीतों की अनुगूंज कर उत्सव की परंपरा की इतिश्री करते नजर आ सकते है या फिर सुबह सबेरे-झांझ मंजीरे और ढोल के साथ बप्पा की आरती तथा प्रसाद पाने के लिए संबंधित क्षेत्रवासियों की मौजूदगी। आज से 25-30 वर्ष पुराना इतिहास उठाकर देखा जाए तो शहर में कई स्थानों पर गणेशोत्सव मनाने के दौरान सजीव झांकियों की सजावट की जाती थी, लेकिन यह अब सब दिखाई नहीं देता है।

 

झांकी निहारने उमड़ती थी भीड़
सिंहपुरी, कार्तिक चौक, पटनी बाजार और पुराने शहर के अन्य कई ऐसे स्थान हुआ करते थे, जहां दोपहर से ही झांकियों को सज्जित करने या किसी पात्र को जीवंत करने हेतु संबंधित आयोजक मंडल के लोग दोपहर से ही तैयारी करना शुरू कर देते थे। शाम होते-होत झांकियों को निहारने के वास्ते लोगों की इतनी भीड़ लग जाती थी कि आयोजकों को भी भीड़ संभालने के लिए मैदान में उतरना पड़ जाता था।

 

बच्चों में भी रहता था उत्साह
धर्माधिकारी पंडित नारायण उपाध्याय बताते है कि अपनी जेब से पैसा लगाकर झांकियों का निर्माण किया जाता था। धार्मिक व पौराणिक विषयों से ओत-प्रोत जीवंत झांकियों का निर्माण होता था तो वहीं खेल खिलौने भी झांकियों में सजाने के लिए बच्चों में उत्साह रहता था। समय के बदलाव ने झांकियों की परंपरा को समाप्त ही कर दिया है। कई स्थान तो ऐेसे भी थे जहां बनने वाली झांकियां प्रसिद्ध हुआ करती थी।

 

परंपरा बचाने का प्रयास करते कुछ संगठन
इसी तरह अनंत चर्तुदशी की रात झांकियों का कांरवां निकालने की भी हमारे शहर में परंपरा रही है। इस परंपरा को बचाने का प्रयास अब चंद संगठन ही कर रहे है। एक समय था जब कुछ शासकीय विभागों के साथ ही कपड़ा मिलों के श्रमिक चतुर्दशी पर झांकियों को निकालते रहे है, परंतु अब न कपड़ा मिल बची है और न ही शासकीय अधिकारी जो रूचि लेते है, जिनके द्वारा परंपरा को बनाए रखने में भूमिका निर्वहन की जाती थी। महज नगर निगम और कुछ एक संस्थाएं मिलकर भी पांच से सात झांकियों को ही निकालने का साहस दिखाते है।

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