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व्यर्थ की चिंता
हरिराम घर का मुखिया था। वह पूरा दिन अपनी दुकान पर काम करता और शाम को जब वह अपने घर आता तो परिवार के सभी लोगों को हंसते-खेलते व मौज-मस्ती करते देख मन ही मन बहुत खुश होता और अपने परिवार की सलामती के लिए भगवान का शुक्रिया अदा करता।
हरिराम के गाँव के बाहर एक विशाल जंगल था और उसी जंगल से होकर ही कहीं आया व जाया जा सकता था। हरिराम जिस रास्ते से अपने घर आता जाता था, उसी रास्ते पर उसके परम मित्र की दुकान थी और वह अपनी किसी भी तरह की समस्या को उसी के साथ Share किया करता था।
एक दिन हरिराम की दुकान के सामने एक आदमी की दुर्घटना से मृत्यु हो गई। इस बात से हरिराम बहुत परेशान था इसलिए उस शाम अपने घर लौटते समय हरिराम अपने मित्र की दुकान पर गया और उसकी दुकान के सामने हुई दुर्घटना के बारे में बताते हुए कहा, ”अगर किसी दिन मुझे कुछ हो गया, तो मेरे परिवार वालों का पालन-पोषण कैसे होगा?”
उसके मित्र ने जवाब दिया, ”तुम इस बात की चिंता मत करो कि तुम्हारे बिना तुम्हारा परिवार कैसे चलेगा। तुम रहो या नहीं, लेकिन तुम्हारा परिवार और ये समाज निरंतर चलता रहेगा।”
हरिराम को उसके मित्र का जवाब कुछ जचा नहीं और इस बात को भांपते हुए उसके मित्र ने कहा कि “तुम कुछ दिनों के लिए मेरे पास ही रूक जाओ। कुछ दिनों बाद अपने घर चले जाना और देख लेना कि तुम्हारे बिना भी तुम्हारा परिवार व्यवस्थित रूप से चलता है या नहीं।“
हरिराम को मित्र का सुझाव अच्छा लगा और वह अपने मित्र के यहां ही कुछ दिनों के लिए ठहर गया जबकि हरिराम के मित्र ने गाँव में आकर लोगों से कह दिया कि जब हरिराम जब घर आ रहे थे, तो उन पर शेर ने हमला कर दिया, जिससे हरिराम की मृत्यु हो गई।”
हरिराम के मित्र की ये बात सुनकर हरिराम के घर पर मातम पसर गया और पूरा परिवार रोने-बिलखने लगा। एक हफ्ते तक परिवार वाले सदमें में रहे कि अचानक हरिराम की मृत्यु कैसे हो गई। लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ पहले जैसा ही सामान्य होने लगा। हरिराम के बड़े लड़के ने अपने पिता की दुकान संंभाल ली और उसका छोटा लड़का फिर से अपनी पढ़ाई में लग गया तथा उसकी लड़की का विवाह एक अच्छे घराने में तय हो गया।
जब सबकुछ पहले जैसा हो गया तब हरिराम के मित्र ने हरिराम को उसके घर जाने के लिए कहा।