उज्जैन में मोक्षदायिनी शिप्रा का पानी हुआ मैला और बदबूदार, मर रहीं मछलियां

ये तस्वीर मोक्षदायिनी ‘शिप्रा नदी’ की है जिसके उद्धार का संकल्प सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और विपक्षी दल कांग्रेस वर्षों से ले रही मगर उसे पूरा नहीं कर रही। परिणाम स्वरूप नदी की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। नदी कहीं-कहीं सूख चुकी है। जहां पानी है वो अत्यंत मैला और बदबूदार है।

नदी में सीवेजयुक्त कान्ह का प्रदूषित पानी मिलना भी जारी है। पानी में आक्सीजन की कमी होने से मछलियां मर रही हैं और इसमें स्नान करने वाले लोग चर्म रोग के शिकार हो रहे हैं। देश की पवित्रता और धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण इस नदी की ऐसी स्थिति देख उज्जैनवालों के साथ पर्यटक भी आहत हैं।

मालूम हो कि इस विधानसभा चुनाव में भी शिप्रा नदी मुद्दा बनी है। भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र (संकल्प पत्र) में एक बार फिर शिप्रा को शामिल कर इसके उद्धार का संकल्प लिया। कहा कि शिप्रा को निर्मल (स्वच्छ) एवं अविरल (प्रवाहमान) बनाने को शिप्रा रिवर बेसिन अथारिटी बनाएंगे। शिप्रा महोत्सव करेंगे।

घाटों का नवीनीकरण एवं सुंदरीकरण करेंगे। कुछ ऐसी ही बात कांग्रेस ने भी कही है। पिछले दो चुनावों और बीच के सालों में भी कही थी। सत्तासीन दल ने संकल्प को सिद्ध करने के लिए अरबों रुपये खर्च कर चार योजनाओं का क्रियान्वयन भी कराया, बावजूद शिप्रा ना प्रवाहमान हो सकी न स्वच्छ।

उल्टा सिंहस्थ- 2016 के बाद तो शिप्रा में प्रदूषण की स्थिति और बढ़ती चली गई। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड शिप्रा के पानी को डी-ग्रेड का करार दे चुका है। इसका मतलब है कि पानी आचमन छोड़ स्नान लायक भी नहीं है। बीते वर्षों में शिप्रा शुद्धीकरण के लिए कई मंचों से आवाज उठी।

घाट से लेकर सड़क, विधानसभा में प्रश्न उठे। सबने एक बात प्रमुख रूप से कही कि ‘शिप्रा में नालों का गंदा पानी न मिलने दिया जाए।’ राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने चेताया भी, बावजूद सुधार न हुआ। इंतहा ये रही कि गंदे पानी का उपचार करने की बजाय उसे परिवर्तित मार्ग से फिर शिप्रा में मिलाने की दो योजनाएं बना डाली। 100 करोड़ रुपये खर्च कर एक योजना का तो क्रियान्वयन तक करा डाला।

ये पूरी तरह सफल न हुई तो दूसरी 598 करोड़ रुपये की ऐसी ही योजना फिर बना डाली। इसकी भी स्वीकृति हुए साल गुजरने को आया है मगर योजना धरातल पर न उतर पाई है। नई-पुरानी योजना में एक बड़ा फर्क सिर्फ इतना है कि पहले गंदे पानी का रास्ता बदलने के लिए गोल पाइपलाइन बिछाई थी, अब एक पक्का स्टापडेम बनाकर चोकोर बाक्सनुमा पाइपलाइन बिछाई जाना है।

हाईकोर्ट के निर्देश के बाद जागी थी सरकार, अभी एनजीटी में चल रहा केस

वर्ष 2003 में एक जनहित याचिका पर हाईकोर्ट के निर्देश के बाद मध्य प्रदेश की सरकार शिप्रा शुद्धीकरण के लिए जागी थी। कोर्ट ने निर्देश दिया था कि शिप्रा का शुद्धीकरण करें। कार्रवाई स्वरूप पहली बार शिप्रा के लिए 22 करोड़ रुपये की योजना बनी थी। तकरीबन 10 साल बाद शिवराज सरकार ने शिप्रा को शुद्ध और सदानीरा बनाने के लिए साल-2014 में ऐतिहासिक कदम उठाते हुए नर्मदा को शिप्रा से जोड़ा।

पहले प्राकृतिक प्रवाह के माध्यम से और फिर साल-2019 में पाइपलाइन के माध्यम से। दोनों परियोजना लागू करने पर 571 करोड़ रुपये खर्च किए। इसके बाद पर्व स्नान और यदा कदा घरेलू जल की आपूर्ति के लिए नर्मदा का जल शिप्रा नदी में छोड़ा।

इंदौर से निकले गंदे नाले के पानी को घाट क्षेत्र त्रिवेणी से सिद्धनाथ तक मिलने से रोकने के लिए 95 करोड़ रुपये की कान्ह डायवर्शन योजना 1.0 को क्रियान्वित कराया। मगर दोनों ही प्रोजेक्ट सफेद हाथी साबित हुए।

अभी भी एनजीटी में शिप्रा प्रदूषण मामले में केस चल रहा है। जनहित याचिकाकर्ता विक्रम विश्वविद्यालय कार्य परिषद के सदस्य हैं। चुनाव आचार संहिता के बाद प्रकरण में सुनवाई होने का अनुमान है।

ये तीन काम करना जरूर

– पहला : शिप्रा के 200 मीटर के दायरे में अवैध निर्माण हटाकर छायादार पेड़ लगाना।

– दूसरा : इंदौर के सीवेजयुक्त नालों के पानी से बनी कान्ह नदी के पानी का उपचार उज्जैन में पिपल्याराघो गांव के आसपास सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाकर करना और इस पानी का इस्तेमाल नहर के माध्यम से कृषि, उद्योग आदि कार्यों में कराना।

– तीसरा : नहान क्षेत्र (त्रिवेणी से सिद्धवट तक) में नदी का पानी कांच की तरह साफ रखने को प्राकृतिक व्यवस्था कायम करना और पानी में आक्सीजन की मात्रा बढ़ाने को जगह-जगह फव्वारे लगाना।

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