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संघर्षां से बनी ‘आइरन लेडी’ शर्मिला इरोम
” उठो भाइयों और बहनों
देश को बचाने के लिए
यह जानते हुए भी कि
हम सब शहीद होंगें
हमें आगे आना ही होगा….”
ये शब्द वास्तव में सुबूत हैं, इस बात का, कि शरीर को कैद किया जा सकता है, लेकिन विचारों को नहीं। इरोम चानू शर्मिला ने ये शब्द जवाहर लाल नेहरू आयुर्विज्ञान संस्थान के विशेष वार्ड में लिखे थे, जहाँ उन्हें पिछले 16 वर्षों तक निरुद्ध कर के बल पूर्वक खिलाया जा रहा था। इस महिला के दृढ़ संकल्प और लंबी भूख हड़ताल की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा और सुना गया है, लेकिन इस के विस्तार में जाने से पहले एक पल को रुक कर संकल्प के उन 16 सालों को जानने का प्रयत्न करना बेहद ज़रूरी है, जो एक शांत कमरे में शोर करती हुई खामोशी के बीच गुज़र गये। इस प्रयास को मात्र भय से नहीं बल्कि व्यवहारिक दृष्टि से समझने कि कोशिश करें, तो अनशन का यह निर्णय और उसे निरन्तर जारी रखना (जैसा कि उन्होंने किया) नितांत अबोध्य प्रतीत होता है। ऐसे में शर्मिला के उस संघर्ष को समझना आसान नहीं है।
जब शर्मिला ने शस्त्र सेना (विशेष शक्ति) अधिनियम (Armed Forces (Special Powers) Act (AFSPA) को निरस्त करने के लिए भूख हड़ताल करने का निर्णय लिया, उस समय मणिपुर में मानव अधिकारों के दुरुपयोग के असंख्य मामले घटित हो रहे थे। हो सकता है इंफाल के कुछ हिस्सों से AFSPA हटा लिया गया हो, लेकिन, मणिपुर अभी भी फर्जी मुठभेड़ों, गुमशुदगी, अत्याचार, भ्रष्टाचार और जबरन वसूली से त्रस्त है। 2013 में फर्जी मुठभेड़ों के 1528 मामलों के आरोपों की जांच के लिए सर्वोच्च न्यायलय द्वारा गठित तीन सदस्यी जजों की एक समिति ने अपनी शुरूआती कुछ मामलों की जांच में ही यह पाया, कि ये सभी मुठभेडें फर्जी थीं।
ये प्रकाश में नहीं आये मामलों के विशाल समुद्र के बीच में कुछ ही मामले थे। थंगजाम मनोरमा के बलात्कार और हत्या जैसे कुछ मामले सुर्खियों में पहुँचने से मणिपुर के हालात की गंभीरता का पता चला। निश्चित रूप से, शर्मिला के परिवार के लोग इस पूरे मामले को उनकी दृष्टि से नहीं देखते थे, जिसने उनके संकल्प को हिलाकर रख दिया था और इसीलिए, उनके विचार उनकी इस पूरी लड़ाई को समझने के लिए जब उनसे पूछा गया, कि क्या आपने कभी एक अनशन के माध्यम से राज्य से लड़ने के अपने इस निर्णय पर खुद से सवाल किया था? तो उन्होंने जवाब दिया ‘नहीं, मैंने अपने इस फैसले पर कभी खुद से सवाल नहीं किया और यही कारण है कि मैं 16 साल तक यह कर सकी।’
उनका गंभीरता से दिया गया यह जवाब एक चिंगारी की मानिंद है, जिसने जंगल में आग की शुरुआत कर दी हो। अचानक, उनकी यह सक्रियता, उनके इस संघर्ष में उनकी भूमिका, शतरंज के खेल में जैसे प्यादे पर विजय और प्यादे से हार जैसी हो गयी।
एक नई रणनीति की ज़रूरत
लोकतंत्र के इस खेल में, शर्मिला के चुनाव लड़ने के निर्णय के विपरीत कई लोग इसे उनकी विफलता के रूप में भी देखतें हैं। जिस पर शर्मिला कहती हैं, कि ‘लोग ये नहीं समझ पा रहे हैं, कि मैंने भूख हड़ताल क्यों समाप्त कर दी। उन्हें लगता है, कि मैं अपने संघर्ष से विमुख हो गयी हूँ। मैं लोगों को बताना चाहती हूँ, कि मैंने सिर्फ अपनी रणनीति को बदला है, लेकिन मेरा संघर्ष अब भी जारी है।’ वो दृढ़तापूर्वक कहती हैं, कि ‘मैं पहले AFSPA को मानवाधिकार का मुद्दा मानती थी, लेकिन वास्तव में यह एक राजनैतिक मुद्दा है और अगर मुख्यमंत्री को इसे निरस्त करने का अधिकार हो तो मैं मुख्यमंत्री बनूंगीं’
शर्मिला एक सामुदायिक बैठक में अपने समर्थकों को अनशन छोड़ने के विषय में बताते हुए
शर्मिला कहती हैं, कि ‘मुझे एहसास हुआ, कि यदि मैं अगले 16 वर्षों तक भी अनशन जारी रखती हूं, तो भी इसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला।’ लेकिन यह सवाल यहां लाजमी हैं कि यदि उन्होंने पिछले 16 सालों में अपने फैसले पर सवाल नहीं उठाया तो अब अपनी रणनीति बदलने के पीछे क्या वजह है? तर्क फिर से उनके अनशन के परिणाम के इर्दगिर्द आ जाता है- उनका अनशन किसी तार्किक परिणाम तक पहुँचने में विफल क्यों रहा? लेकिन उनके इस नए फैसले पर विभिन्न बहसों के दौरान यह भुला दिया जाता है कि वास्तव में वो शर्मिला नहीं थी जो असफल हुई, बल्कि लोग असफल हुए उनकी सोच असफल हुई।
सविनय अवज्ञा के अपेक्षित परिणाम प्रायः अधूरे होते हैं
मालोम नरसंहार के प्रति शर्मिला का अहिंसक दृष्टिकोण गांधीवादी सिद्धांतों के प्रति उनकी श्रद्धा को दर्शाता है। इस तरह के प्रतिरोध की समानता को ध्यान में रखते हुए किसी को भी आश्चर्य होगा, कि जिस भूख हड़ताल के माध्यम से गाँधी जी अपने उद्देश्य में सफल रहे वही माध्यम शर्मिला के काम नहीं आया। शर्मिला कहती हैं, ‘और हो सकता है कि पूरा भारत ऐसा ही चाहता हो, लेकिन वास्तव में मणिपुर के लिए कोई भी चिंतित नहीं है।’ उनका ऐसा कहना आत्म दया की वजह से नहीं, बल्कि हक़ीक़त पर आधारित है और ये हक़ीक़त लोगों को और अधिक निराश करती है। जब गांधीजी ने दांडी मार्च का फैसला लिया तब उनका सविनय अवज्ञा का लक्ष्य नमक पर लगाया गया ‘कर’ था। यह एक मुद्दा हर भारतीय को और विशेष रूप से गरीबों को प्रभावित कर रहा था, क्योंकि नमक जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक है। इसलिए, गांधी जी का सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रभाव सार्वभौमिक रूप से महसूस किया गया। इस कदम ने एक जन आंदोलन की शुरुआत की, जिसके फलस्वरूप 100,000 गिरफ्तारियां हुईं।
इसके विपरीत, शर्मिला (जिन्हें कि मणिपुर की आयरन लेडी कहा जाता है) ने अकेले स्तंभ के रूप में एक खंडित लोकतंत्र का समर्थन करके मजबूत इरादों से उसके बोझ को साझा करने की जरूरत को पूरा करने का काम किया। शर्मिला कहती हैं, ‘बड़े पैमाने पर लोगों को इस आंदोलन में शामिल होना चाहिए था, क्योंकि यह हम सभी की भलाई के लिए है और यह मेरी अकेली कि जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए थी।’ आगे वे कहती हैं, कि अपेक्षित समर्थन के बदले मिले समर्थन ने उन्हें निराश ही किया है।
कई सामाजिक संगठनो ने शर्मिला के संघर्ष को मान्यता दिलाने में उनकी मदद की और दुनिया भर के लोगों ने उनके साथ एकजुटता दिखाई, जिसके लिए शर्मिला उन सभी का आभार व्यक्त करती हैं। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, कि जिस तरह के जन आंदोलन की उम्मीद उन्होंने की थी वैसा जन आंदोलन मात्र एकजुटता से संभव नहीं हो सकता।
शर्मिला मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के खिलाफ मोर्चा खोलने के बाद विधान सभा चुनाव के लिए अपना नामांकन दाखिल करने से पहले
अधिकतर सफल जन आन्दोलनों में एक चीज समान होती है, कि प्रारंभ में बनाई गई नीतियों में समझौते की मेज़ पर कोई परिवर्तन नहीं किया जाता, बल्कि उनके प्रतीकात्मक गुणों (जो कि जनता की राय से प्रभावित होते हैं और राजनीतिक माहौल को बदल देते हैं) को अपार जन समर्थन हासिल होता है और यह सुबूत फिर से इतिहास में दर्ज हो रहा है।
गाँधीजी के दांडी मार्च का भी कोई ठोस परिणाम नीतिगत स्तर पर नहीं मिल सका था और ज्यादातर लोगों को इसमें असफलता ही दिखाई दी थी, क्योंकि इसकी परिणीति जिस इर्विन समझौते के रूप में हुयी थी उसमें भी बातचीत में निराशाजनक हानि ही हुयी थी। मार्टिन लूथर किंग द्वितीय का बर्मिंघम आंदोलन भी असफल ही कहा जायेगा, क्योंकि इसके बाद हुए समझौते के तहत शहर का पृथकरण संतोषजनक ढंग से नहीं हो पाया। इसके बावजूद इन दोनों जनांदोलनों को निर्णायक माना जाता है, क्योंकि इन आंदोलनों ने बड़े पैमाने पर लोगों को लामबंद किया। यदि किसी को इस दृष्टिकोण पर चिंतन करना है, तो बस वैकल्पिक अतीत की कल्पना कर सकता है जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान केवल गांधी को ही व्यक्तिगत रूप से कैद में रहना पड़ा और आज के वैकल्पिक समय में शर्मिला के साथ और भी राजनीतिक कैदी हैं, जहां आप पायेंगें कि प्रत्येक मामले में निहितार्थ भी चौंका देने वाला ही होगा।
सब कुछ खत्म नहीं हुआ, क्योंकि उम्मीद एक जिंदा शब्द है
ऐतिहासिक आंदोलनों के प्रकाश में यह भी स्पष्ट हो जाता है कि शर्मिला की लड़ाई खत्म नहीं हुई है। संवेग को छोड़ कर सभी सफल जन आंदोलनों में एक विशेषता समान होती है- वे नई चुनौतियों के बदले सत्ता में बैठे लोगों के लिए भी नई चुनौतियां पेश करते हैं और वास्तव में अब शर्मिला की अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी People’s Resurgence and Justice Alliance (PRJA) के माध्यम से यही करने की योजना भी है। नाम में Resurgence ‘पुनरुत्थान’ अपने आप में संकेत है, कि लड़ाई अभी खत्म नहीं हुयी है और अब शर्मिला को साइकिल पर प्रचार करते देखा जा सकता है। ये उनका वो जूनून है जो उनके नज़रबंद रहने की वजह से पूरा नहीं हो पाया था। उनकी पार्टी ने 33 प्रतिशत महिला आरक्षण बिल पेश करने की योजना बनाई है, साथी ही वे एक भ्रष्टाचार निरोधक बिल भी लाना चाहती हैं। उनकी सरकार आने पर रोजगार के मामले में आत्मनिर्भरता तथा मणिपुर के प्राकृतिक संसाधनो का इसके विकास में दायित्वपूर्ण उपयोग करना भी इनके प्रस्ताव में शामिल है।
शर्मिला के अभियान के दौरान का एक दृश्य, जहां लोग उन्हें रोकते हैं, बात करते हैं, अपना समर्थन देते हुए उन्हें उनके कामों के लिए दान देते हैं
शर्मिला की योजना घाटी तथा पहाड़ियों के सभी लोगों को एक साथ ला कर मणिपुर में सभी समुदायों के बीच शांति बनाने की हैं। वास्तव में उन्हें पूरी तरह से समर्थन नहीं मिलने के अंतर्निहित कारणों में से एक राज्य में सांप्रदायिक संघर्ष के विरुद्ध भी यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। आपसी सांप्रदायिक तनाव की वजह से ही सरकारें AFSPA की निरंतर उपस्थिति को उचित ठहराती रही हैं। उनकी यह सादगी और स्पष्टवादिता (जिसके बल पर उन्होंने अपनी भूख हड़ताल जारी रखी) संभवतः उनके राजनीतिक प्रयास में उन्हें बहुत लाभ पहुंचायेगी, क्योंकि शर्मिला भ्रष्टाचार से त्रस्त, सत्ता की भूख के राजनीतिक खेल में कुछ अलग करने जा रहीं हैं।
पैसे से वोट खरीदने के चलन की निंदा करते हुए शर्मिला कहती हैं, कि ‘मैं एक साधारण इंसान हूँ और मैं पूरी ईमानदारी और लगन से चुनाव लड़ना चाहती हूँ। मेरे पास पैसे नहीं हैं, साथ ही मैं चुनाव में धन और बाहुबल का उपयोग नहीं करना चाहती।’ अपने राजनीतिक अभियान के लिए उन्हें लोगों द्वारा दिए गए दान और प्राप्त समर्थन पर पूरा भरोसा है। खुद को भरोसा दिलाते हुए वे कहती हैं, ‘लोग जानते हैं, कि पार्टी और मैं ईमानदार हैं, इसलिए वे समर्थन करेंगे।’
44 साल की हो चुकी शर्मिला का लोगों में निरंतर विश्वास संभवतः उनकी इच्छा से अधिक तार्किक है। उनकी लड़ाई एक ऐसे लोकतंत्र के खिलाफ है, जहाँ AFSPA जैसे कठोर कानून को भी जगह मिल जाती है। उनका यही विश्वास लोकतंत्र की बेहतरी के लिए काम कर सकता है। उस लोकतंत्र के लिए जिसकी शक्ति आम आदमी के समर्थन में निहित है।
अंत में शर्मिला लोगों से लोकतंत्र के मूल्यों को बनाये रखने के लिए आग्रह करते हुए कहती हैं, ‘मेरा संघर्ष ही लोगों के लिए मेरा संदेश है।’